कहानी- गंदी औरत | Short Story in Hindi – Gandi Aurat

नमस्कार दोस्तों आज हम आपके लिए एक बेहतरीन कहानी- गंदी औरत | Short Story in Hindi – Gandi Aurat लेकर आये हैं और हमें आशा है कि आपको यह कहानी जरुर पसंद आएगी

Short Story in Hindi - Gandi Aurat
Short Story in Hindi – Gandi Aurat

कहानी- गंदी औरत | Short Story in Hindi – Gandi Aurat

कहानी- गंदी औरत: शांतम्मा मर गई. मिसेज़ मेहता का बेटा पप्पू अभी-अभी अनु को यह ख़बर सुना गया था.
शांतम्मा से अनु का ना तो कोई भावनात्मक रिश्ता था, ना ही वो अनु की कोई संबंधी थी. बस, अनु की दिनचर्या से शांतम्मा अदृश्य रूप से जुड़ी हुई थी. अनु की सोच में असमय आकर शांतम्मा अनु को अपने बारे में सोचने को मजबूर कर दिया करती थी, इसलिए शांतम्मा की मौत से अनु को धक्का तो नहीं लगा था, पर दिल में एक हलचल- सी मच गई.
जब अनु इस नए मकान में रहने आई थी, तब सबसे पहले मकान की घंटी बजानेवाली शांतम्मा ही थी.

“आपको कामवाली चाहिए मेमसाब.” शांतम्मा ने पूछा था
जवाब देने से पहले अनु ने उसे सिर से पांव तक निहारा. मोटा तगड़ा, काला शरीर, चिपटी नाक और घुंघराले बालों की लटों से मांग से कान तक दोनों ओर बालों के गोलाकार गुच्छे और बड़ी सी टिकली वाली बिंदिया से सजा चेहरा. अनु सोच रही थी- अपने घुंघराली लटों को गोलाकार गुच्छों में संवारने में शांतम्मा को कितना समय लगता होगा.

“मेमसाब…” शांतम्मा ने अनु को इस तरह अपनी ओर देखते पाकर मुस्कुराकर टोका था.
“हां… कामवाली तो चाहिए, पर तुम्हें कल बताऊंगी.” अनायास ही अनु बोल गई.

“अच्छा मेमसाब मेरा नाम शांतम्मा है. कॉलोनी की सभी मेमसाब मुझे जानती हैं, आप चाहे तो किसी से भी मेरे बारे में पूछ सकती हैं.” कहते हुए शांतम्मा लौट गई थी.
अनु नई थी इसलिए उसी रोज़ कॉलोनी की कई महिलाएं अनु से मिलने आई थीं.

पर किसी ने भी शांतम्मा को काम पर रखने का मशविरा नहीं दिया था. शांतम्मा को कॉलोनी की सभी गृहिणियों पर विश्वास था, इसलिए उसने अनु को सलाह दी थी कि वो कॉलोनी की महिलाओं से पूछ ले.

लेकिन कॉलोनी की महिलाओं ने शांतम्मा के विश्वास को ग़लत ठहरा दिया था. इस बात से पसीज गई थी अनु.
पर अगले ही क्षण मिसेज़ मेहता ने आत्मीयता से अनु के कानों में बताया, “मिसेज़ चटर्जी तो अपने पति को छोड़कर मायके चली गई थी, इस शांतम्मा की वजह से.”
“अच्छा पर क्यों?” अनु अगले ही क्षण शांतम्मा के प्रति कुछ कठोर सी हो गई थी.

“अरे, एक बरसती रात मिस्टर चटर्जी उसे अपने स्कूटर पर घर छोड़ आए थे, बस इसी बात पर उस रात दोनों में जमकर झगड़ा हुआ और श्रीमती चटर्जी ने मायके का रुख किया.
“मगर क्यो?” अनु को आश्चर्य हुआ था.
“इतना भी नहीं समझती…” खोझती हुई मिसेज़ मेहता ने कहा था, “वो चरित्रहीन है. पुरुषों पर डोरे डालने का प्रयास करती है.”
“पर, क्या शांतम्मा का पति नहीं है?”

“अरे है क्यों नहीं, ह‌ट्टा-क‌ट्टा पति है कलमुंही का. रिक्शा चलाता है, पर इसे मतुष्ट नहीं कर पाता होगा, तभी तो मुंह मारती फिरती है.” मिसेज़ मेहता ने गंदा सा मुंह बनाते हुए स्पष्ट किया.
इतने सारे लोगों की एक सी प्रतिक्रिया थी शांतम्मा के बारे में कि अनु के लिए उसे काम पर रख पाना संभव नहीं हुआ.
अगले रोज़ शातम्मा पूछने भी आई थी, “मेमसाब क्या सोचा.”

“फ़िलहाल तो मुझे ज़रूरत ही नहीं है. जब होगी तो बताऊंगी.” कहते हुए अनु ने फटाक से किवाड़ बंद कर दिया. अनु को डर था कहीं शातम्मा पीछे ही न पड़ जाए. ऐसी औरतों से बात तक करने में अनु डरती थी.

कुछ दिनों के बाद शांतम्मा फिर आई थी. गिड़गिड़ाती हुई बोली थी, “मेमसाब, मेरे बेटे को कैंसर है. बड़े डॉक्टर साहब कहते हैं अगर जल्दी ऑपरेशन हो गया, तो बच्चा बच जाएगा. मुंबई ले जाना है इलाज के लिए, अभी सिर्फ़ एक ही घर में काम है. कैसे जमा कर पाऊंगी उसके इलाज के लिए पैसा. अगर आप भी काम दे दें तो…” “तुम्हारा पति भी तो कमाता है.”

“मेमसाब कमाता है. उसी की कमाई से तो घर चलता है पर इतना ज़्यादा नहीं कमाता कि बच्चे के लिए कुछ बचा सके, तभी तो मैं भी काम करती हूं.” कहते-कहते शांतम्मा की आंखें भर आई.
अनु फिर पसीज गई थी, पर शांतम्मा पर विश्वास करने में वो हिचक रही थी. ऐसी औरते अपना काम निकालने के लिए कुछ भी कर सकती हैं, इसलिए अनु को बड़ी सफ़ाई से शातम्मा को रखने से इंकार करना पड़ा.

“तुम्हारे बेटे की दवाई इतनी सस्ती तो नहीं कि उसे ऐसे ही दे दूं. जितना काम तुम करती हो उससे तो दवाई के पैसे वसूल नहीं होते. रात का खाना बनाने आ जाया करो तभी दवाई के पैसे वसूल होंगे…”
काम करने के लिए अनु ने एक नौकरानी रख ली थी.

पर वो महसूस करती रहती कि वो कहीं न कहीं शांतम्मा के साथ अन्याय कर रही है. अपनी कॉलोनी की महिलाओं के सामने वो शांतम्मा के प्रति अपनी भावना या दुविधा को कह तो नहीं पाती थी, पर जब कभी शांतम्मा कहीं दिखाई दे जाती, अनु की आंखें झुक जाया करतीं. वो मन ही मन शांतम्मा के प्रति अपने को गुनहगार मानने लगी थी.

अनु के घर की खिड़की से वह घर स्पष्ट दिखाई देता था, जहां शांतम्मा काम करती थी. उस घर में कोई महिला नहीं थी. बस, विधुर होमियोपैथिक डॉक्टर और उनका इकलौता बेटा था. इसके अलावा दो कुत्ते. वो तब तक काम करती रहती, जब तक डॉक्टर डिसपेंसरी न चले जाते.

अनु न चाहकर भी कई बार परदा खिसकाकर डॉक्टर के घर झांकती रहती. पता नहीं शांतम्मा के क्रियाकलापों में उसे क्या दिलचस्पी थी कि वो अपने आपको रोक नहीं पाती थी. अनु हर रोज़ यह प्रयास करती कि शांतम्मा की एक झलक उस दिख जाए.

शांतम्मा कभी डॉक्टर साहब के बगीचे में पानी डालते हुए, कभी कुत्तों को नहलाते हुए, तो कभी डॉक्टर के बेटे का हाथ पकड़कर उसे बस स्टॉप की ओर ले जाते नज़र आती.
अनु ने महसूस किया था कि डॉक्टर साहब की नज़र हर वक़्त शांतम्मा के उन पुष्ट टांगों पर टिकी रहती थी, जो साड़ी को ऊपर खींचकर खोंसने से स्पष्ट दिखाई पड़ता था.
अनु को कई बार लगता था कि शांतम्मा का डॉक्टर साहब के साथ कोई ऐसा रिश्ता है, जिसे संदेहास्पद कहा जा सके.

एक दिन डॉक्टर साहब और शांतम्मा को ऊंची आवाज़ में बात करते सुनकर अनु दौड़ती हुई खिड़की पर आई थी. देखा, डॉक्टर साहब पेड़-पौधों को सींच रहे थे और शांतम्मा सीढ़ियों पर बैठी सुबक रही थी.

डॉक्टर साहब ज़ोर-ज़ोर से कह रहे थे, “तुम्हारे बेटे की दवाई इतनी सस्ती तो नहीं कि उसे ऐसे ही दे दं. जितना काम तुम करती हो, उससे तो दवाई के पैसे वसूल नहीं होते. रात का खाना बनाने को आ जाया करो, तभी दवाई के पैसे वसूल होंगे, वरना मैं दवाइयां नहीं दे सकता. सोच लो…”
“मेरे आदमी का ग़ुस्सा तो आप जानते ही हो डॉक्टर साहब, रात को काम पर मैं नहीं आ सकती. चटर्जी साहब की बीवी के झंझट के बाद से मैंने रात का खाना बनाने का काम बिल्कुल ही बंद कर दिया है.”

“तुम्हारी मर्जी.” कहते हुए डॉक्टर साहब अंदर चले गए थे और शांतम्मा वहीं सीढ़ियों पर बैठी घंटों सुबकती रही. जब तक शांतम्मा वहां बैठी थी अनु अंदर जा ही नहीं सकी. परदे की ओट से वो लगातार उसे देखती रही थी. उसके बाद फिर कभी अनु को शांतम्मा नहीं दिखाई दी.

हर रोज़ कई बार वो खिडकी खोलकर शांतम्मा को तलाशती रहती, पर शांतम्मा ने डॉक्टर साहब के घर आना बंद कर दिया था.
शांतम्मा के न आने से अनु को कहीं किसी कमी का एहसास सा होने लगा था. पर कॉलोनी में शांतम्मा के न रहने से भी उसकी चर्चा निर्बाध रूप से चल रही थी, इसलिए अनु की कमी थोड़ी-बहुत उसके विषय में हुई बातचीत से पूरी हो जाती.

अनु को शायद शांतम्मा में दिलचस्पी इसलिए भी थी कि उसने आज तक अपने जीवन में ऐसी गंदी औरतों को नहीं देखा था, जो किसी और के पति पर डोरे डालती हो.
कई बार अनु का मन होता कि वो शांतम्मा के जीवन में झांककर उसे क़रीब से देखे. उसे शांतम्मा से ख़ूब बात करने की इच्छा होती.

यह पूछने की भी कि वो दूसरे पुरुषों पर डोरे क्यों डालती है? पर शांतम्मा जैसी औरत से संपर्क रखने से लोग उसके बारे में भी चर्चा कर सकते है, यही सोचकर शांतम्मा से बात करने में अनु को संकोच होता था. वैसे अब शांतम्मा से बात करने का सवाल ही नहीं उठता था. वह कॉलोनी में किसी को भी दिखाई नहीं देती थी.

शांतम्मा का विषय धीरे-धीरे कम होने लगा. अनु भी महसूस करने लगी कि वो अब शांतम्मा के बारे में कम सोचने लगी है.
पर अचानक एक रोज़ अनु के पति ने बताया कि उन्होंने शांतम्मा को बड़े ही गंदे इलाके में देखा है.
“गंदे इलाके यानी…” अनु समझ नहीं पाई थी.

“अनु, वास्तव में वो एक गंदी औरत ही थी. उसे मैंने एक वेश्या के रूप में देखा है, जहां और जिस परिस्थिति में मैंने उसे देखा है वह इस बात को सिद्ध करता है.”
“पर, तुम वहां गए कैसे?”

“रोज़ ही गुज़रना होता है उस गंदी बस्ती से. हमारे दफ़्तर के लिए और कोई रास्ता ही नहीं है.” अनु के पति ने मासूसियत से कहा.
अनु ने अगले ही दिन सारी कॉलोनी की महिलाओं को इस नई ख़बर से अवगत करा दिया. सभी के चेहरे पर इस बात की संतुष्टि थी कि वास्तव में शांतम्मा वैसी ही औरत थी जैसे उन लोगों ने सोच रखी थी.

कभी कभार अनु को भी लगता था कि कहीं शांतम्मा के बारे में ग़लत बातें करके वो कोई पाप तो नहीं कर रही. पर अब उसे भी इस भय से मुक्ति मिल गई थी.
“चलो अच्छा ही हुआ जो वो सही जगह पहुंच गई, वरना इस कॉलोनी को ही गंदा कर देती…” मिसेज़ मेहता ने कहा.
“हां, छुट्टी मिली उस वेश्या से.” मिसेज़ चटर्जी धीरे से बुदबुदाई थी.

शांतम्मा का चरित्र सत्यापन होने के बाद कुछ दिनों तक तो उसका विषय ज़ोर-शोर से इनके बातचीत का विषय बना रहा, पर धीरे-धीरे कम हो गया.
पर आज अचानक शांतम्मा के न रहने की ख़बर ने अनु को विचलित सा कर दिया.

अप्रत्यक्ष रूप से अनु के जीवन में शामिल रही. शांतम्मा के न रहने से उसे एक खालीपन का एहसास होने लगा.
शांतम्मा के अंतिम दर्शन के लिए जाने को अनु तत्पर हो उठी. मिसेज़ मेहता को किसी तरह मनाकर अनु ने साथ लिया और शांतम्मा के घर चल दी.
घर के आसपास लोगों का जमघट था. झोपड़े के बाहर शांतम्मा का शव बिना कफ़न के पड़ा था. सिरहाने उसका पति बैठा सुबक रहा था.

मिसेज़ मेहता और अनु को सामने पाकर वो खड़ा हो गया.
“ये हुआ कैसे?” मिसेज़ मेहता चेहरे पर ढेर सारे शोक भावों को दर्शाते हुए पूछ बैठीं.
“मेमसाब, इसके बुरे काम के कारण मैं तो अलग रहने लगा था. दो महीने पहले यह मुझे बताने आई थी कि उसने मुन्ने के ऑपरेशन के लिए पैसों का इंतजाम कर लिया है और उसका दाखिला भी मुंबई के अस्पताल में करा दिया है.

आज सबेरे डॉक्टर साहब का तार आया था कि उन्होंने मुन्ने का ऑपरेशन कर दिया है और मुन्ना ठीक हो जाएगा. बस… इसी ख़ुशी को सहन नहीं कर पाई. छाती में ज़ोरों का दर्द उठा. लोग इसे अस्पताल ले जा रहे थे, पर रास्ते में ही इसने दम तोड़ दिया…”

अनु और मिसेज़ मेहता ने एक-दूसरे की ओर चोर दृष्टि से देखा. अनु को लग रहा था कि वो दोषी है शांतम्मा की मौत के लिए, उसे काम न देकर उस पर अविश्वास करके, उसे गंदी औरत मानकर उसे गंदी औरत बनाने में भी उनका ही हाथ रहा था, वरना शांतम्मा तो एक मा थी… एक कैंसर रोगी बेटे की ममतामयी किन्तु मजबूर मां…
“चलें…” मिसेज़ मेहता का हाथ कसकर थामते हुए अनु ने धीरे से कहा.
मुड़ते हुए उसने एक बार फिर शांतम्मा की ओर देखा. उसके हाथों में अब भी वो टेलिग्राम दबा हुआ था, जो अनु को मुंह चिढ़ा रहा था.

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