Jhansi Ki Rani by Vrindavan Lal Verma: नमस्कार दोस्तों आज के इस पोस्ट का भाग वृन्दावनलाल वर्मा के प्रसिद्ध उपन्यास झाँसी की रानी से लिया गया है। इसमें अंग्रेजों के साथ झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के अन्तिम युद्ध का वर्णन है। तो आइये बिना देरी के पोस्ट को शुरू करते हैं और पढ़ते हैं झांसी की रानी का अंतिम युद्ध, story of rani laxmi bai in hindi, Rani Lakshmibai Story in Hindi, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानी
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झांसी की रानी का अंतिम युद्ध | Jhansi Ki Rani by Vrindavan Lal Verma
‘मुन्दरबाई रघुनाथसिंह, ने कहा, रानी साहब का साथ एक क्षण के लिए भी न छूटने पावे। आज अन्तिम युद्ध लड़ने जा रही हैं।’
मुन्दर ‘आप कहाँ रहेंगे?’
रघुनाथसिंह- जहाँ उनकी आज्ञा होगी। वैसे आप लोगों के समीप ही रहने का प्रयत्न करूँगा।’
मुन्दर- मैं चाहती हूँ आप बिल्कुल निकट ही रहें। मुझे लगता है, मैं आज मारी जाऊँगी आपके निकट होने से शान्ति मिलेगी।’
रघुनाथसिंह- ‘मैं भी नहीं बचूँगा। रानी साहब को किसी प्रकार सुरक्षित रखना है। मैं तुम्हें तुरन्त ही स्वर्ग में मिलूँगा। केवल आगे-पीछे की बात है। वह सूखी हँसी हँसा।’
मुन्दर ने रघुनाथसिंह की ओर आँसू भरी आँखों से देखा। कुछ कहने के लिए होंठ हिले। रघुनाथसिंह की आँखें भी धुँधली हुई।
दूर से दुश्मन के बिगुल के शब्द की झाई कान में पड़ी। मुन्दर ने रघुनाथसिंह को मस्तक नवाकर प्रणाम किया और उसके ओट में जल्दी-जल्दी आँसू पोंछ डाले। रघुनाथसिंह ने मुन्दर को नमस्कार किया और दोनों शर्बत लिये हुए रानी के पास पहुँचे।
मुन्दर ने जूही को पिलाया, रघुनाथसिंह ने रानी को अंग्रेजों के बिगुल का साफ शब्द सुनायी दिया। तोप का धड़ाका हुआ, गोला सन्ना कर ऊपर से निकल गया। रानी दूसरा कटोरा नहीं पी सकीं।
रानी ने रामचन्द्र देशमुख को आदेश दिया, ‘दामोदर को आज तुम पीठ पर बाँधो। यदि मैं मारी जाऊँ तो इसको किसी तरह दक्षिण सुरक्षित पहुँचा देना। तुमको आज मेरे प्राणों से बढ़कर अपनी रक्षा की चिन्ता करनी होगी दूसरी बात यह है कि मारी जाने पर ये विधर्मी मेरी देह को छू न पायें। बस। घोड़ा लाओ।’
मुन्दर घोड़े ले आयी। उसकी आँखें छलछला रही थी। पूर्व दिशा में अरुणिमा फैल गयी। अबकी बार कई तोपों का धड़ाका हुआ।
रानी मुस्करायी बोलीं, ‘यह तात्या की तोपों का जवाब है।’
मुन्दर की छलछलाती हुई आँखों को देखकर कहा, ‘यह समय आँसुओं का नहीं है मुन्दर! जा, तुरन्त अपने घोड़े पर सवार हो। अपने लिए आये हुए घोड़े को देखकर बोली ‘यह अस्तबल को प्यार करने वाला जानवर है। परन्तु अब दूसरे को चुनने का समय ही नहीं है। इसी से काम निकालूंगी।’
जूही के सिर पर हाथ फेरकर कही, ‘जा जूही अपने तोपखाने परा छका तो दे इन बैरियों को आज’
जूही ने प्रणाम किया। जाते हुए कह गयी, ‘इस जीवन का यथोचित अभिनय आपको न दिखला पायी। खैर।’
इतने में सूर्य का उदय हुआ।
सूर्य की किरणों ने रानी के सुन्दर मुख को प्रदीप्त किया। उनके नेत्रों की ज्योति दुहरे चमत्कार से भासमान हुई। लालवर्दी के ऊपर मोती-हीरों का कंठा दमक उठा और चमक पड़ी म्यान से निकली हुई तलवार।
रानी ने घोड़े को एड़ लगायी। पहले जरा हिचका फिर तेज हो गया।
उत्तर और पश्चिम की दिशाओं में तात्या और राव साहब के मोर्चे थे। दक्षिण में बाँदा के नवाब का, रानी ने पूर्व की ओर झपट लगायी।
गत दिवस की हार के कारण अंग्रेज जनरल सावधान और चिन्तित हो गये थे। इन लोगों ने अपनी पैदल पल्टनें पूर्व और दक्षिण की बीहड़ में छिपा लीं और हुजर सवारों को कई दिशाओं में आक्रमण की योजना की तोपें पीठ पर रक्षा के लिए थीं।
हुजर सवारों ने पहला हमला कड़ाबीन बन्दूकों से किया। बन्दूकों का जवाब बन्दूकों से दिया गया। रानी ने आक्रमण पर आक्रमण करके हुजर सवारों को पीछे हटाया। दोनो ओर के सवारों की बेहिसाब दौड़ से धूल के बादल छा गये। रानी के रणकौशल के मारे अंग्रेज जनरल थर्रा गये। काफी समय हो गया परन्तु अंग्रेजों को पेशवाई मोर्चा से निकल जाने की गुंजायश न मिली।
जूही की तोपें गजब ढा रही थीं। अंग्रेज नायक ने इन तोपों का मुँह बन्द करना तय किया। हुजर सवार बढ़ते जाते थे, मरते जाते थे, परन्तु उन्होंने इस तरफ की तोपों को चुप करने का निश्चय कर लिया था। रानी ने जूही की सहायता के लिए कुमुक भेजी।
उसी समय उनको खबर मिली कि पेशवा की अधिकांश ग्वालियरी सेना और सरदार ‘अपने महराज की शरण में चले गये। मुन्दर ने रानी से कहा, ‘सवेरे अस्तबल का प्रहरी रिस-रिस कर अपने सरकार का स्मरण कर रहा था। मुझे सन्देह हो गया था कि ग्वालियरी कुछ गड़बड़ी करेंगे।’
‘गाँठ में समय न होने के कारण कुछ नहीं किया जा सकता था।’, रानी बोलीं, ‘अब जो कुछ सम्भव है वह करो।’
इनकी लालकुर्ती अब तलवार खींचकर आगे बढ़ी। उस धूल धूसरित प्रकाश में भी तलवारों की चमचमाहट ने चकाचैंध पैदा कर दी।
कुछ ही समय उपरान्त समाचार मिला कि ग्वालियरी सेना के पर पक्ष में मिल जाने के कारण रावसाहब के दो मोर्चे छिन गये हैं और अंग्रेज उनमें से घुसने लगे हैं। रानी के पीछे पैदल पल्टन थी। उसको स्थिति सँभालने की आज्ञा देकर वह एक ओर बढ़ी। उधर-सवार जूही के तोपखाने पर जा टूटे।
जूही तलवार से भिड़ गयी। घिर गयी और मारी गयी। परन्तु शत्रु की तलवार जिसे चीरने में असमर्थ रही वह थी जूही की क्षीण मुस्कुराहट जो उसके होठों पर अनन्त दिव्यता की गोद में खेल गयी।
वर्दी के कट जाने पर हुजरों ने देखा कि तोपखाने का अफसर गोरे रंग की एक सुन्दर युवती थी और उसके होठों पर मुस्कुराहट थी।
समाचार मिलते ही रानी ने इस तोपखाने का प्रबन्ध किया।
इतने में ही ब्रिगेडियर स्मिथ ने अपने छिपे हुए पैदलों को छिपे हुए स्थानों से निकाला। वे संगीनें सीधी किये रानी के पीछे वाली पैदल पल्टन पर दो पाश्र्वों से झपटेो पेशवा की पैदल पल्टन घबरा गयी। उसके पैर उखड़े। भाग उठी। रानी ने प्रोत्साहन, उत्तेजन दिया। परन्तु उनके और उस भागती हुई पल्टन के बीच में गोरो की संगीनें और हुजरों के घोड़े आ चुके थे।
अंग्रेजों की कड़ाबीनें, संगीनें और तोपें पेशवाई सेना का संहार कर उठीं। पेशवा की दो तोपें भी उन लोगों ने छीन ली अंग्रेजी सेना बाढ़ पर आयी हुई नदी की तरह बढ़ने और फैलने लगी।
रानी की रक्षा के लिए लालकुर्ती सवार अटूट शौर्य और अपार विक्रम दिखलाने लगे। न कड़ाबीन की परवाह, न संगीन का भय और तलवार तो मानो उनको ईश्वरीय देन थी। उस तेजस्वी दल ने घंटों अंग्रेजों का प्रचंड सामना किया। रानी धीरे-धीरे पश्चिम दक्षिण की ओर अपने मोर्चे की शेष सेना से मिलने के लिए मुड़ी।
यह मिलान लगभग असम्भव था, क्योंकि उस भागती हुई पैदल पल्टन और रानी के बीच में बहुसंख्यक हुजर सवार और संगीन बरदार पैदल थे। परन्तु उन बचे-खुचे लालकुर्ती वीरों ने अपनी तलवारों की आड़ बनायी।
रानी ने घोड़े की लगाम अपने दाँतों में थामी और दोनों हाथों से तलवार चलाकर अपना मार्ग बनाना आरम्भ कर दिया। दक्षिण-पश्चिम की ओर सोनरेखा नाला था।
आगे चलकर बाबा गंगादास की कुटी के पीछे दक्षिण और पश्चिम की ओर हटती हुई पेशवाई पैदल पल्टना मुन्दर रानी के साथ थी। अगल-बगल रघुनाथ सिंह और रामचन्द्र देशमुख। पीछे कुँवर गुलमुहम्मद और केवल बीस-पच्चीस अवशिष्ट लाल सवार अंग्रेजों ने थोड़ी देर में इन सबके चारों तरफ घेरा डाल दिया। सिमट-सिमट कर उस घेरे को कम करते जा रहे थे।
परन्तु रानी की दुहत्थू तलवारें आगे का मार्ग साफ करती चली जा रही थीं। पीछे के वीर सवारों की संख्या घटते-घटते नगण्य हो गयी। उसी समय तात्या ने रुहेली और अवधी सैनिकों की सहायता से अंग्रेजों के व्यूह पर प्रहार किया। तात्या कठिन से कठिन व्यूह में होकर बच निकलने की रणविद्या का पारंगत पंडित था। अंग्रेज थोड़े से सवारों को लालकुर्ती का पीछा करने के लिए छोड़कर तात्या की ओर मुड़ गये। सूर्यास्त होने में कुछ विलम्ब था।
लालकुर्ती का अन्तिम सवार मारा गया। रानी के साथ केवल चार सरदार और उनकी तलवारें रह गयी। पीछे से कड़ाबीन और तलवार वाले दस-पन्द्रह गोरे सवार। आगे कुछ संगीन वाले गोरे पैदल
रानी ने पीछे की तरफ देखा- रघुनाथसिंह और गुलमुहम्मद तलवार से अंग्रेज सैनिकों की संख्या कम कर रहे थे। एक ओर रामचन्द्र देशमुख दामोदरशव की रक्षा की चिन्ता में बरकाव करके लड़ रहा था।
रानी ने देशमुख की सहायता के लिए मुन्दर को इशारा किया और वह स्वयं संगीनबरदारों को दोनों हाथों की तलवारों से खटाखट साफ करके आगे बढ़ने लगी। एक संगीनबरदार की हूल रानी के सीने के नीचे पड़ी। उन्होंने उसी समय तलवार से उस संगीनबरदार को खत्म कर दिया। हूल करारी थी, परन्तु आँतें बच गयीं।
रानी ने सोचा, स्वराज्य की नींव बनने जा रही हूँ। रानी का खून बह निकला।
उस संगीनबरदार के खत्म होते ही बाकी भागे। रानी आगे निकल गयी। उनके साथी भी दायें-बायें और पीछे। आठ दस गोरे घुड़सवार उनको पछियाते हुए। रघुनाथ सिंह पास थे। रानी ने कहा, “मेरी देह को अंग्रेज न छूने पावें।”
गुलमुहम्मद ने भी सुना और समझ लिया। वह और भी जोर से लड़ा।
एक अंग्रेज सवार ने मुन्दर पर पिस्तौल दागी। उसके मुँह से केवल ये शब्द निकले। ‘बाईसाहब, मैं मरी मेरी देह…… भगवान्।’
अन्तिम शब्द के साथ उसने एक दृष्टि रघुनाथ सिंह पर डाली और वह लटक गयी। रानी ने मुड़कर देखा। रघुनाथ सिंह से कहा, ‘सँभालो उसे उसके शरीर को वे न छूने पावें।’
और वे घोड़े को मोड़कर अंग्रेज सवारों पर तलवारों की बौछार करने लगीं कई कटे। मुन्दर को मारने वाला मारा गया।
रघुनाथ सिंह फुर्ती के साथ घोड़े से उतरा। अपना साफा फाड़ा। मुन्दर के शव को पीठ पर कसा और घोड़े पर सवार होकर आगे बढ़ा।
गुलमुहम्मद बाकी सवारों से उलझा रानी ने फिर सोन रेखा नाले की ओर घोड़े को बढ़ाया। देशमुख साथ हो गया।
अंग्रेज सवार चार-पाँच रह गये थेो गुलमुहम्मद उनको बहकावा देकर रानी के साथ हो लिया। रानी तेजी के साथ नाले पर आ गयीं।
घोड़े ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया- बिल्कुल अड़ गया। रानी ने पुचकारा। कई प्रयन्न किये परन्तु सब व्यर्थी
वे अंग्रेज सवार आ पहुँचे।
एक गोरे ने पिस्तौल निकाली और रानी पर दागी गोली उनकी बायीं जंघा में पड़ी। वे गले में मोती-हीरों का दमदमाता हुआ कंठा पहने हुए थी। उस अंग्रेज सवार ने रानी को कोई बड़ा सरदार समझकर विश्वास कर लिया कि अब कंठा मेरा हुआ। रानी ने बायें हाथ की तलवार फेंक कर घोड़े की लगाम पकड़ी और दूसरे जाँघ तथा हाथ की सहायता से अपना आसन सँभाला।
इतने में वह सवार और भी निकट आया। रानी ने दायें हाथ के वार से उसको समाप्त कर दिया। उस सवार के पीछे से एक और सवार निकल पड़ा।
रानी ने आगे बढ़ने के लिए फिर एक पैर की एड़ लगायी।
घोड़ा बहुत प्रयन्न करने पर भी अड़ा रहा। वह दो पैरों से खड़ा हो गया। रानी को पीछे खिसकना पड़ा। एक जाँघ काम नहीं कर रही थी। बहुत पीड़ा थी। खून के फव्वारे पेट और जाँघ के घाव से छूट रहे थे।
गुलमुहम्मद आगे बढ़े हुए अंग्रेज सवार की ओर लपका।
परन्तु अंग्रेज सवार ने गुलमुहम्मद के आ पहुँचने के पहले ही तलवार का वार रानी के सिर पर किया।
वह उनकी दायीं ओर पड़ा। सिर का वह हिस्सा कट गया और आँख बाहर निकल पड़ी। इस पर भी उन्होंने अपने घातक पर तलवार चलायी और उसका कन्धा काट दिया।
गुलमुहम्मद ने उस सवार के ऊपर कसकर अपना भरपूर हाथ छोड़ा। उसके दो टुकड़े हो गये।
बाकी दो तीन अंग्रेज सवार बचे थे। उन पर गुलमुहम्मद बिजली की तरह टूटा। उसने एक को घायल कर दिया। दूसरे के घोड़े को लगभग अधमरा कर दिया। वे तीनों मैदान छोड़कर भाग गये। अब वहाँ कोई शत्रु न था। जब गुलमुहम्मद मुड़ा तो उसने देखा रामचन्द्र देशमुख घोड़े से गिरती हुई रानी को साधे हुए हैं।
दिन भर के थके माँदै, भूखे-प्यासे, धूल और खून में सने हुए गुलमुहम्मद ने पश्चिम की ओर मुँह फेर कर कहा, ‘खुदा, पाक परवरदिगार, रहम रहमा’
रघुनाथ सिंह और देशमुख ने रानी को घोड़े पर से सँभाल कर उतारा।
रघुनाथ सिंह ने देशमुख से कहा, ‘एक क्षण का भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। अपने घोड़े पर इनको होशियारी के साथ रखो और बाबा गंगादास की कुटी पर चलो। सूर्यास्त होना ही चाहता है।’
देशमुख का गला रुँधा था। बालक दामोदरराव अपनी माता के लिए चुपचाप रो रहा था।
रामचन्द्र ने पुचकार कर कहा, ‘इनकी दवा करेंगे, अच्छी हो जायेंगी, रो मत।’
रामचन्द्र ने रघुनाथ सिंह की सहायता से रानी को सँभाल कर अपने घोड़े पर रखा।
रघुनाथ सिंह ने गुलमुहम्मद से कहा, ‘कुँवर साहब, इस कमजोरी से काम और बिगड़ेगा। याद कीजिए, अपने मालिक ने क्या कहा था। अंग्रेज अब भी मारते काटते दौड़ धूप कर रहे हैं। यदि आ गये तो रानी साहब की देह का क्या होगा।’
गुलमुहम्मद चैंक पड़ा। साफे के छोर से आँसू पोंछे। गला बिल्कुल सूख गया था। आगे बढ़ने का इशारा किया। वे सब द्रुतगति से बाबा गंगादास की कुटी पर पहुँचे।
लेखक: वृन्दावनलाल वर्मा
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Conclusion
वृन्दावन लाल वर्मा का जन्म 9 जनवरी सन् 1889 ई० को मऊरानीपुर झाँसी में हुआ था। शिक्षा प्राप्त करने के बाद इन्होंने झाँसी में ही रह कर वकालत आरम्भ की। छात्र जीवन से ही उन्होंने लिखना आरम्भ किया और जीवन पर्यन्त लिखते रहे।
उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ ‘गढ़ कुंडार’, ‘लगन’, ‘संगम’, ‘विराटा की पद्मिनी’, ‘मुसाहिब जू’, ‘झाँसी की रानी’, ‘मृगनयनी’ (उपन्यास) ‘धीरे-धीरे’, ‘राखी की लाज’, ‘जहाँदारशाह’, ‘मंगलसूत्र’ (नाटक), ‘शरणागत’, ‘कलाकार का दंड’ (कहानी संग्रह) हैं। वृन्दावनलाल वर्मा को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए भारत सरकार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश राज्यों के साहित्य पुरस्कार, डालमिया साहित्यकार संसद, हिन्दुस्तानी अकादमी प्रयाग आदि के सर्वोत्तम पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। इनकी मृत्यु 23 फरवरी सन् 1969 को हुई।
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FAQ: Jhansi Ki Rani by Vrindavan Lal Verma
Q: झांसी की रानी का रचयिता कौन है?
ANS: झांसी की रानी के रचयिता वृन्दावन लाल वर्मा जी हैं
Q: झांसी की रानी कौन सी कास्ट से थी?
ANS: झांसी की रानी महाराष्ट्रीयन कराड़े ब्राह्मण कास्ट से थी
: झांसी की रानी उपन्यास किसका है?
ANS: झांसी की रानी उपन्यास वृन्दावन लाल वर्मा द्वारा लिखित ऐतिहासिक उपन्यास है