Sona Story by Mahadevi Verma: नमस्कार दोस्तों आज कि यह कहानी महादेवी वर्मा द्वारा लिखित रेखाचित्र ‘मेरा परिवार से लिया गया है। इसमें लेखिका ने एक हिश्नी के बच्चे का बड़ा मार्मिक शब्द-चित्र खींचा है। तो आइये बिना देरी के कहानी कि शुरुवात करते हैं और पढ़ते हैं सोना हिरनी कि कहानी , Sona Hirni mahadevi verma, सोना (हिरनी) महादेवी वर्मा द्वारा लिखित कहानी
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Sona Story by Mahadevi Verma | सोना हिरनी कि कहानी
सोना की आज अचानक स्मृति हो आने का कारण है। मेरे परिचित स्वर्गीय डाक्टर धीरेन्द्र नाथ वसु की पौत्री सुस्मिता ने लिखा है ‘गत वर्ष अपने पड़ोसी से मुझे एक हिरन मिला था। बीते कुछ महीनों से हम उससे बहुत स्नेह करने लगे हैं, परन्तु अब में अनुभव करती हूँ कि सघन जंगल में सम्बद्ध रहने के कारण तथा अब बड़े हो जाने के कारण उसे घूमने के लिए अधिक विस्तृत स्थान चाहिए।
क्या कृपा करके आप उसे स्वीकार करेंगी? सचमुच मैं आपकी बहुत आभारी रहूँगी, क्योंकि आप जानती हैं मैं उसे ऐसे व्यक्ति को नहीं देना चाहती जो उससे बुरा व्यवहार करे। मेरा विश्वास है, आपके यहाँ उसकी भलीभाँति देखभाल हो सकेगी।’
कई वर्ष पूर्व मैंने निश्चय किया था कि अब हिरण नहीं पालूँगी, परन्तु आज उस नियम को भंग किये बिना इस कोमल प्राण जीव की रक्षा सम्भव नहीं है।
सोना इसी प्रकार अचानक आयी थी, परन्तु वह अब तक अपनी शैशवावस्था भी पार नहीं कर सकी थी। सुनहरे रंग की रेशमी लच्छों की गाँठ के समान उसका कोमल लघु शरीर था। छोटा सा मुँह और बड़ी-बड़ी पानीदार आँखें। देखती तो लगता था कि अभी छलक पड़ेंगी।
लम्बे कान, पतली सुडौल टाँगें, जिन्हें देखते ही उनमें प्रसुप्त गति की बिजली की लहर देखने वालों की आँखों में कौंध जाती थी। सब उसके सरल, शिशु रूप से इतने प्रभावित हुए कि किसी चम्पकवर्णा रूपसी के उपयुक्त सोना, सुवर्णा, स्वर्णलेखा आदि नाम उसका परिचय बन गये।
परन्तु उस बेचारे हरिण-शावक की कथा तो मिट्टी की ऐसी व्यथा-कथा है, जिसे मनुष्य की निष्ठुरता गढ़ती है। बेचारी सोना भी मनुष्य की इसी निष्ठुर मनोरंजन प्रियता के कारण अपने अरण्य परिवेश और स्वजाति से दूर मानव-समाज में आ पड़ी थी।
प्रशान्त वनस्थली में जब अलस भाव से रोमन्थन करता हुआ बैठा मृग-समूह शिकारियों के आहट से चैंककर भागा, तब सोना की माँ सद्यः प्रसूता होने के कारण भागने में असमर्थ रही। सद्यः जात मृग शिशु तो भाग नहीं सकता था, अतः मृगी माँ ने अपनी सन्तान को अपने शरीर की ओट में सुरक्षित रखने के प्रयास में प्राण दिये।
पता नहीं दया के कारण या कौतुकप्रियता के कारण शिकारी मृत हिरनी के साथ उसके रक्त से सने और ठंडे स्तनों से चिपके हुए शावक को जीवित उठा लाये। उनमें से किसी के परिवार की सदय गृहिणी और बच्चों ने उसे पानी मिला दूध पिला- पिलाकर दो-चार दिन जीवित रखा।
सुस्मिता वसु के समान ही किसी बालिका को मेरा स्मरण हो आया और वह उस अनाथ शावक को मुमूर्षु अवस्था में मेरे पास ले आयी शावक अवांछित तो था ही उसके बचने की आशा भी धूमिल थी, परन्तु उसे मंने स्वीकार कर लिया।
स्निग्ध सुनहले रंग के कारण सब उसे सोना कहने लगे। दूध पिलाने की शीशी, ग्लूकोज, बकरी का दूध आदि सब कुछ एकत्र करके, उसे पालने का कठिन अनुष्ठान आरम्भ हुआ।
उसका मुख इतना छोटा था कि उसमें शीशी का निपल समाता ही नहीं था, उस पर उसे पीना भी नहीं आता धीरे-धीरे उसे पीना ही नहीं दूध की बोतल पहचानना आ गया।
आँगन में कूदते-फाँदते हुए भी भक्तिन को साफ करते देखकर वह दौड़ आती और अपनी तरल आँखों से उसे ऐसे देखने लगती मानों वह कोई सजीव उसने रात में मेरे पलंग के पाये से सटकर सीख लिया था, पर वहाँ गन्दा न करने की आदत के अभ्यास से पड़ सकी।
अँधेरा होते ही वह मेरे पास आ बैठती और फिर सवेरा होने पर ही वह बाहर निकलती
उसका दिनभर का कार्यकलाप भी एक प्रकार से निश्चित था। विद्यालय और छात्रावास की विद्यार्थिनियों के निकट पहले वह कौतुक का कारण रही, परन्तु कुछ दिन बीत जाने पर वह उनकी ऐसी प्रिय साथिन बन गयी, जिसके बिना उनका किसी काम में मन ही नहीं लगता था।
उसे छोटे बच्चे अधिक प्रिय थे, क्योंकि उनके साथ खेलने का अधिक अवकाश रहता था। वे पंक्तिबद्ध खड़े होकर सोना-सोना पुकारते और वह उनके ऊपर से छलाँग लगाकर एक ओर से दूसरी ओर कूदती रहती। वह सरकस जैसा खेल कभी घंटो चलता, क्योंकि खेल के घंटों में बच्चों की एक कक्षा के उपरान्त दूसरी आती रहती
मेरे प्रति स्नेह-प्रदर्शन के कई प्रकार थे। बाहर खड़े होने पर वह सामने या पीछे से छलांग लगाती और मेरे सिर के ऊपर से दूसरी ओर निकल जाती। प्रायः देखने वालों को भय होता था कि मेरे सिर पर चोट न लग जाय, परन्तु वह पैरों को इस प्रकार सिकोड़े रहती और मेरे सिर को इतनी ऊँचाई से लाँघती थी कि चोट लगने की कोई सम्भावना ही नहीं रहती थी।
भीतर आने पर वह मेरे पैरों से अपना शरीर रगड़ने लगती। मेरे बैठे रहने पर वह साड़ी का छोर मुँह में भर लेती और कभी पीछे चुपचाप खड़े होकर चोटी ही चबा डालती डॅाटने पर वह अपनी बड़ी गोल और चकित आँखों से ऐसे अनिर्वचनीय जिज्ञासा भरकर एकटक देखने लगती कि हँसी आ जाती
अनेक विद्यार्थिनियों की भारी भरकम गुरुजी से सोना को क्या लेना देना था। वह तो उस दृष्टि को पहचानती थी, जिसमें उसके लिए स्नेह छलकता था और उन हाथों को जानती थी जिन्होंने यन्नपूर्वक दूध की बोतल उसके मुख से लगायी थी।
यदि सोना को अपने स्नेह की अभिव्यक्ति के लिए मेरे सिर के ऊपर से कूदना आवश्यक लगेगा तो वह कूदेगी ही। मेरी किसी अन्य परिस्थिति से प्रभावित होना, उसके लिए सम्भव नहीं था।
कुत्ता स्वामी और सेवक का अन्तर जानता है और स्नेह या क्रोध की प्रत्येक मुद्रा से परिचित रहता है। स्नेह से बुलाने पर वह गद्गद होकर निकट आ जाता है और क्रोध करते ही सभीत और दयनीय बनकर दुबक जाता है, पर हिश्न यह अन्तर नही जानता। अतः उसका पालने वाले से डरना कठिन है।
यदि उस पर क्रोध किया जाए तो वह अपनी चकित आँखां में और अधिक विस्मय भरकर पालने वाले की दृष्टि से दृष्टि मिलाकर खड़ा रहेगा, मानो पूछता हो क्या यह उचित है। वह केवल स्नेह पहचानता है, जिसकी स्वीकृति बताने के लिए उसकी विशेष चेष्टाएँ हैं।
मेरी बिल्ली गोधूली, कुत्ते हेमन्त-वसन्त, कुतिया फ्लोरा सबसे पहले इस नये अतिथि को देखकर रुष्ट हुए, परन्तु सोना ने थोड़े ही दिनों में सबसे सख्य स्थापित कर लिया। फिर तो वह घास पर लेट जाती और कुत्ते और बिल्ली उस पर उछलते कूदते रहते। कोई उसके कान खींचता, कोई पैर, और जब वे इस खेल में तन्मय हो जाते तब वह अचानक चौकड़ी भरकर भागती और वे गिरते-पड़ते उसके पीछे दौड़ लगाते
वर्ष भर का समय बीत जाने पर सोना हरिण-शावक से हरिणी में परिवर्तित होने लगी। उसके शरीर के पीताभ रोयें ताम्रवर्णी झलक देने लगे। टाँगें अधिक सुडॉल और खुरों के कालेपन में चमक आ गयी। ग्रीवा अधिक बंकिम और लचीली हो गयी। पीठ में भराव वाला उतार-चढ़ाव और स्निग्धता दिखायी देने लगी।
परन्तु सबसे अधिक विशेषता तो उसकी आँखों और दृष्टि मंळे मिलती थी। आँखों के चारों ओर खिंची कज्जलकोर में नीले गोलक और दृष्टि ऐसी लगती थी मानो नीलम के बल्बों में उजली विद्युत का स्फुरण हो।
इसी बीच फ्लोरा ने भक्तिन की कुछ अँधेरी कोठरी के एकान्त कोने में चार बच्चों को जन्म दिया और वह खेल के संगियों को भूल कर अपनी नवीन सृष्टि के संरक्षण में व्यस्त हो गयी। एक-दो दिन सोना अपनी सखी को खोजती रही, फिर उसको इतने लघु जीवों से घिरा देख उसकी स्वाभाविक चकित दृष्टि गम्भीर विस्मय से भर गयी।
एक दिन देखा फ्लोरा कहीं बाहर घूमने गयी है और सोना भक्तिन की कोठरी में निश्चिन्त लेटी है। पिल्ले आँखें बन्द रहने के कारण चीं-चीं करते हुए सोना के उदर में दूध खोज रहे थे। तब से सोना के नित्य के कार्यक्रम में पिल्लों के बीच में लेट जाना भी सम्मिलित हो गया।
आश्चर्य की बात यह थी कि फ्लोरा हेमन्त, बसन्त या गोधूली को तो अपने बच्चों के पास फटकने भी नहीं देती थी परन्तु सोना के संरक्षण में उन्हे छोड़कर आश्वस्त भाव से इधर-उधर घूमने चली जाती थी।
सम्भवतः वह सोना की स्नेही और अहिंसक प्रकृति से परिचित हो गयी थी।
पिल्लों के बड़े होने पर और उनकी आँखें खुल जाने पर सोना ने उन्हें भी अपने पीछे घूमनेवाली सेना में सम्मिलित कर लिया और मानो इस वृद्धि के उपलक्ष्य में आनन्दोत्सव मनाने के लिए अधिक देर तक मेरे सिर से आर-पार चौकड़ीभरती रही।
उसी वर्ष गर्मियों में मेरा बद्रीनाथ की यात्रा का कार्यक्रम बना। प्रायः मैं अपने पालतू जीवों के कारण प्रवास में कम रहती हूँ। उनकी देख-रेख के लिए सेवक रहने पर भी मैं उन्हें छोड़कर आश्वस्त नहीं हो पाती। भक्तिन, अनुरूप आदि तो साथ जाने वाले थे ही। पालतू जीवों में से मैंने फ्लोरा को साथ ले जाने का निश्चय किया, क्योंकि वह मेरे बिना नहीं रह सकती थी।
सोना की सहज चेतना में न मेरी यात्रा जैसी स्थिति का बोध था न प्रत्यावर्तन का, उसी से उसकी निराश जिज्ञासा और विस्मय का अनुमान मेरे लिए सहज था।
पैदल आने-जाने के निश्चय के कारण बद्रीनाथ की यात्रा में ग्रीष्मावकाश समाप्त हो गया। जुलाई को लौटकर जब मैं बंगले के द्वार पर आ खड़ी हुई तब बिछुड़े हुए पालतू जीवों में कोलाहल होने लगा।
गोधूली मेरे कन्धे पर आ बैठी हेमन्त, बसन्त मेरे चारों ओर परिक्रमा करके हर्ष की ध्वनियों से मेरा स्वागत करने लगे। पर मेरी दृष्टि सोना को खोजने लगी। क्यो वह अपना उल्लास व्यक्त करने के लिए मेरे सिर के ऊपर से छलाँग नहीं लगाती सोना कहाँ है, पूछने पर माली आँखें पोछने लगा और चपरासी, चैकीदार एक दूसरे का मुख देखने लगे।
वे लोग आने के साथ ही मुझे कोई दुःखद समाचार नहीं देना चाहते थे, परन्तु माली की भावुकता ने बिना बोले ही उसे दे डाला।
ज्ञात हुआ कि छात्रावास के सन्नाटे और फ्लोराश के तथा मेरे अभाव के कारण सोना इतनी अस्थिर हो गयी थी कि इधर-उधर कुछ खोजती सी वह प्रायः कम्पाउंड से बाहर, निकल जाती थी।
इतनी बड़ी हिरनी को पालने वाले तो कम थे, परन्तु उसका खाद्य और स्वाद प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों का बाहुल्य था। इसी आशंका से माली ने उसे मैदान में एक लम्बी रस्सी से बाँधना आरम्भ कर दिया था।
एक दिन न जाने किस स्तब्धता की स्थिति में बन्धन की सीमा भूल कर वह बहुत ऊँचाई तक उछली और रस्सी के कारण मुख के बल धरती पर आ गिरी। वही उसकी अन्तिम साँस और अन्तिम उछाल थी।
सब सुनहले रेशम की गठरी से शरीर को गंगा में प्रवाहित कर आये और इस प्रकार किसी निर्जन वन में जन्मी और जन-संकुलता में पली सोना की करुण कथा का अन्त हुआ।
सब सुनकर मैंने निश्चय किया था कि अब हिरन नहीं पालूँगी, पर संयोग से फिर हिरन पालना पड़ रहा है।
महादेवी वर्मा
Conclusion
हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान रचनाकारों में से एक महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च सन् 1907 ई0 को फर्रुखाबाद में हुआ था। इन्होंने गद्य और पद्य – दोनों मे सुन्दर रचनाएँ की हे। ‘स्मृति की रेखाएँ, ‘अतीत के चलचित्र’, ‘पथ के साथी, ‘मेरा परिवार, आदि इनकी प्रसिद्ध गद्य रचनाएँ हैं। 11 सितम्बर सन् 1987 ई0 को प्रयाग में इनका निधन हो गया। मरणोपरान्त 1988 में पद्मविभूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया।
FAQ: Sona Story by Mahadevi Verma
Q: लेखिका को सोना की स्मृति हो आने का क्या कारण था?
ANS: लेखिका को सोना की याद आने का कारण उनके स्वर्गीय मित्र कि पौत्री सुस्मिता ख़त होता है
Q: महादेवी वर्मा की हिरनी का नाम क्या था?
ANS: महादेवी वर्मा की हिरनी का नाम सोना था
Q: महादेवी वर्मा की जाति क्या थी?
ANS: महादेवी वर्मा हिंदू चित्रगुप्तवंशी कायस्थ जाति कि थी
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