Shaap Mukti Story in Hindi by Ramesh Upadhyay | शाप – मुक्ति कहानी रमेश उपाध्याय

नमस्कार दोस्तों आज के पोस्ट में हम आपके लिए Shaap Mukti Story in Hindi by Ramesh Upadhyay | शाप – मुक्ति कहानी रमेश उपाध्याय लेकर आये हैं इस कहानी में कहानीकार ने डॉ. प्रभात के माध्यम से अपराधबोध तथा प्रायश्चित – स्वरुप मानव सेवा का व्रत लेने का चित्रण किया है। तो चलिए कहानी कि शुरुवात करते हैं और पढ़ते हैं कहानी शाप मुक्ति, शाप मुक्ति -डॉ रमेश उपाध्याय

shaap mukti story in hindi by ramesh upadhyay
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Shaap Mukti Story in Hindi by Ramesh Upadhyay | शाप – मुक्ति कहानी रमेश उपाध्याय

शाप – मुक्ति: मैं बूढी दादी की आँखों का इलाज कराने दिल्ली के एक बड़े प्रसिद्ध नेत्र – चिकित्सक डॉ. प्रभात के पास गया । लगभग दृष्टिहीन हो चुकी दादी को सहारा दिए जब मैं डॉ. प्रभात के कमरे में पहुंचा तो उन्होंने मुस्कुराते हुए दादी का स्वागत किया, ‘आओ, आओ, दादी अम्मा ! कहाँ, क्या तकलीफ है?’

कोई तकलीफ नहीं, बीटा। बस बुढापे की मारी हूँ। बुढापे में नज़र कमजोर हो ही जाती है।’

‘पर मैं तो आँखों का डॉक्टर हूँ दादी अम्मा ! बुढापे का इलाज मेरे पास कहाँ ?’ डॉ. प्रभात ने हँसते हुए कहा |

मेरी दादी भी कम विनोदी स्वभाव की नहीं। कहने लगी, ‘कोई बात नहीं, बेटा ! तुम आँख का ही इलाज कर दो, बुढापे का इलाज तो भगवान् के पास भी नहीं है।”

यह सुनकर डॉ. प्रभात हँस पड़े और दादी से बात करते हुए उनकी आँखों की जाँच करने लगे । उन्होंने विस्तार से, कई उपकरणों और यंत्रों की सहायता से दादी की आँखों की जांच की। बीच बीच में बातचीत और हँसी मजाक भी करते जाते थे

मैं चुपचाप बैठा डॉ. प्रभात की ओर देख रहा था। पहले तो मुझे उनकी हँसी ही कुछ जानी-पहचानी लगी थी, फिर ध्यान से देखने पर उनका चेहरा भी कुछ परिचित-सा मालूम हुआ। लेकिन याद नहीं आ रहा था कि मैंने इन्हें पहले कहाँ देखा है। आखिर जब उन्होंने दादी की आँखों की पूरी जाँच कर ली, तो मैंने पूछ ही लिया, ‘आप कहाँ के रहने वाले हैं, डॉक्टर साहब?’

‘इलाहाबाद का हूँ।’ क्यों?
‘अरे, हम भी इलाहाबाद के ही हैं।’ दादी मुझसे पहले ही बोल उठीं।

‘अच्छा? बड़ी खुशी हुई।’ डॉ. प्रभात ने सचमुच खुश होकर पूछा ‘इलाहाबाद में कहाँ रहते हैं आप लोग?’
दादी ने ज्यों ही हमारे इलाहाबाद वाले घर का पता-ठिकाना बताया, डॉ. प्रभात ने मेरी तरफ देखा और अचरज भरी प्रसन्नता से बोले, “अरे, तुम बब्बू तो नहीं हो?”
“और तुम मंटू?”

“हाँ भई, मैं मंटू ही हूँ। वाह, यार तुम खूब मिले! तुम तो शायद जब दूसरी या तीसरी कक्षा में पढ़ते थे, तभी अपने परिवार के साथ दिल्ली चले आये थे। है न? वाह, मुझे तो स्वप्न में भी आशा नहीं थी कि जीवन में फिर कभी तुमसे भेंट होगी। सच, बड़ी खुशी हुई तुमसे मिलकश”
“मुझे भी।” मैंने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा।

तभी डॉ. प्रभात ने दादी का चेहरा ध्यान से देखा और अचानक उनकी मुस्कान लुप्त हो गयी। चेहरा किसी दुखदाई स्मृति में काला-सा हो आया। दादी की अत्यधिक कमजोर आँखों को डॉक्टर के चेहरे का यह भाव-परिवर्तन नज़र नहीं आया। वे प्रसन्न होकर पूछने लगीं, “अच्छा, तो तुम दोनों बचपन में साथ-साथ खेले हो? यह तो बड़ा अच्छा संयोग रहा। तुम तो अपने ही हुए, डॉक्टर बेटा। हाँ, तुमने अपना क्या नाम बताया? मंटू ? इलाहाबाद में हमारे पड़ोस में एक वकील रहते थे, उनके लड़के का नाम भी कुछ ऐसा ही था। बड़ा बद‌माश लड़का था ।”

डॉ. प्रभात ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे सहसा बहुत गम्भीर हो गये। दादी के लिए दवाई का पर्चा लिखते हुए उन्होनें कहा, “ये बातें फिर कभी होगी, दादी अम्मा! बाहर और भी कई रोगी इन्तजार कर रहे हैं।

मैं तुम्हारी दवाई लिख रहा हूँ। बाजार से मँगवा लेना और दिन में तीन बार आँखों में डालती रहना, फिर अगले सप्ताह आज के ही दिन आ जाना। तुम्हारी आँखों का ऑपरेशन करना होगा। घबराना मत, ईश्वर ने चाहा तो तुम्हारी आँखें अच्छी हो जायेंगी।”

बाहर आते ही दादी ने मुझसे पूछा, “यह उसी वकील का बेटा मंटुआ था न?”

“हाँ, दादी ! बचपन में मेरे साथ पढ़ता था।”
“बस, तो अब इसके पास दुबारा आने की जरूरत नहीं। मैं इस दुष्ट के हाथों अपनी आँखें नहीं फुड़‌वाऊँगी।”

“कैसी बातें करती हो, दादी! यह तो बहुत माना हुआ डॉक्टर है और अब तो अपनी जान-पहचान का भी निकल आया। उसे दुष्ट क्यों कह रही हो?”
“तू भूल गया इसने वहाँ इलाहाबाद में क्या किया था?”
“क्या किया था?”

“अरे, तुझे याद नहीं, इसने मुहल्ले की कुतिया के तीन पिल्लों की आँखें आक के
पाँधों का दूध डालकर फोड़ दी थीं?” मैं सचमुच ही सब कुछ भूला हुआ था। “तूने ही तो यह बात हम लोगों को बतायी थी।”

इलाहाबाद (प्रयागराज) में हमारे पड़ोसी वकील साहब की कोठी के पीछे एक बहुत बड़ा बाग और घास का मैदान था। मैं मंटू के साथ अक्सर वहाँ खेला करता था। बाग की मेड़ के पास आक के बहुत से पौधे उगे हुए थे। एक दिन हम खेल-खेल में आक के पत्ते तोड़ने लगेो उधर से गुजरते हुए हमारे स्कूल के अध्यापक ने हमें देख लिया

उन्होंने हमें डाँट लगायी और बताया कि आक के पत्ते कभी नहीं तोड़ने चाहिए, क्योंकि उन्हें तोड़ने से जो गाढ़ा-गाढ़ा सफेद दूध-सा निकलता है, यदि आँखों में चला जाये तो आदमी अन्धा हो जाता है।

यह जानकारी हम लोगों के लिए एकदम नयी और विस्मयकारी थी। ठंड के दिन थे और मुहल्ले में आवारा घूमने वाली एक कुतिया ने वकील साहब की कोठी के पीछे पड़ी सूखी टहनियों के ढेर के नीचे तीन पिल्ले दिये थे। पिल्ले बड़े सुन्दर थे। मैं और मंटू उनसे खेला करते थे।

आक के दूध के भयानक असर की जानकारी मिलने के अगले दिन जब मैं स्कूल से आकर खाना खाने के बाद मंटू के साथ खेलने गया तो मैंने देखा, मंटू आक के पौधों के पास बैठा है और उसके घुटनों में दबा पिल्ला कें-कें कर रहा है। दो पिल्ले पास ही कूँ-कूँ करते इधर-उधर भटक रहे थे। नजदीक जाकर मैंने देखा, हैरान रह गया। मंटू आक के पत्ते तोड़-तोड़ कर उनका दूध पिल्ले की आँखों में डाल रहा था।

“यह तूने क्या किया, बेवकूफ! पिल्ला अन्धा हो जायेगा।” मैने चिल्ला कर कहा।

मंटू ने उस पिल्ले को रख दिया और बोला, “मैंने उन दोनों की आँखों में भी आक का दूध भर दिया है। अब देखेंगे, ये तीनों अन्धे होते हैं या नहीं।”

उस गाढ़े चिपचिपे दूध से तीनों पिल्लों की आँखें बन्द हो गयीं। कुछ दिनों बाद आँखें तो शायद खुल गयी थीं, लेकिन वे अन्धे हो गये थे।

मंटू के इस कुकृत्य की जानकारी केवल मुझे ही थी। मैंने उसे उन प्यारे-प्यारे पिल्लों को अन्धा बना देने के लिए बहुत बुरा-भला कहा था और वकील साहब से शिकायत करने की धमकी भी दी थी। उसने गिड़गिड़ा कर मुझसे कहा था कि यह बात में किसी को न बताऊँ। मैं शायद बताता भी नहीं, लेकिन जब उन तीन पिल्लों में से दो, दिन- रात कूँ-कूँ करते, इधर से उधर भटकते मर गये, मुझे बहुत दुःख हुआ और उस दिन मैं बहुत रोया।

सभी लोग मुझसे बार-बार पूछने लगे कि मैं क्यों रो रहा हूँ? पहले मैंने बात छिपा कर अपने मित्र मंटू को बचाने की कोशिश की, लेकिन फिर मुझे तीसरे पिल्ले का ध्यान आ गया, जो अभी जीवित था और उसकी जान बचाना मुझे मंटू को पिटाई से बचाने से ज्यादा जरूरी लग रहा था।

इसलिए मैंने रोते-रोते सारी बात बता दी और उस पिल्ले की आँखों का इलाज करा देने की जिद पकड़ ली।

सब लोगों ने मंटू को बुरा-भला कहा। वकील साहब ने उसकी पिटाई भी की। मुझे भी बहुत कुछ सुनना पड़ा, क्योंकि मैंने भी सब कुछ जानते हुए भी बात को तब तक छिपाए रखा, जब तक दो पिल्ले मर नहीं गये।
आखिर तीसरे पिल्ले को बचाने के प्रयास किये गये। मैंने जिद करके उसे पाल लिया।

पिताजी ने उसकी आँखों का इलाज भी कराया, लेकिन वह अन्धा ही रहा। माँ और दादी उसकी बड़ी सेवा करती थीं। मैं भी उसका बहुत ध्यान रखता था। उस समय तो उसकी जान बच गयी, लेकिन जब वह बड़ा हो गया, एक दिन घर से बाहर निकल गया और सड़क पर किसी वाहन से कुचल कर मर गया।

उस घटना को याद कर मैं हैरान रह गया। बचपन में तीन पिल्लों की आँखें फोड़ देने वाला मंटू आज इतना बड़ा नेत्र-चिकित्सक ! इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह थी कि लगभग पैंतीस साल पहले की वह घटना, जिसे मैं भूल चुका था, दादी को अभी तक याद थी।

निश्चय ही वह घटना प्रभात को भी याद होगी, तभी तो वह हम लोगों का परिचय पाते ही अचानक चुप, गम्भीर और उदास हो गये थे।

‘लेकिन दादी, बचपन की उस बात को लेकर अब तो डॉ. प्रभात को बुरा-भला कहना ठीक नहीं। मैंने दादी को समझाने की कोशिश की, ‘अब वे मंटू नहीं, देश के माने हुए नेत्र-चिकित्सक हैं। दूर-दूर से लोग उनके पास अपनी आँखों का इलाज कराने आते हैं। अब तक तो हजारों लोगों को उनकी खोयी हुई नेत्र-ज्योति लॉटा चुके होंगे। क्या इतनी बड़ी सेवा से उनका बचपन का अबोध अवस्था में किया हुआ पाप अब तक धुल नहीं गया होगा ?’

‘कुछ भी हो, मैं उससे अपनी आँखों का इलाज नहीं कराऊँगी।’ दादी ने निश्चय के स्वर में कहा।

मैंने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन वे डॉ. प्रभात से इलाज कराने को तैयार न हुई। आँखों में डालने की जो दवाई डॉ. प्रभात ने लिखकर दी थी, वह भी नहीं खरीदने दी। परिवार के सब लोगों ने उन्हें समझाया, लेकिन वे टस से मस नहीं हुई।

आखिर शाम को मैंने डॉ. प्रभात को टेलीफोन किया और दादी की जिद के बारे में बताया। डॉ. प्रभात ने गम्भीर होकर सब कुछ सुना और बोले, ‘तुम अपने घर का पता बताओ, मैं स्वयं आकर दादी अम्मा को समझाऊँगा।’
लगभग एक घंटे बाद डॉ. प्रभात हमारे घर में थे और दादी से कह रहे थे, ‘दादी अम्मा. मैंने बचपन में जो पाप किया था, उसे मैं आज तक नहीं भूला हूँ और मैं उस शाप को भी नहीं भूला हूँ, जो आपने मुझे दिया था।

जब तक आप इलाहाबाद (प्रयागराज) में रहीं, मुझे देखते ही कहने लगती थीं- अरे, कम्बख्त मंटुआ, तूने मासूम पिल्लों की आँखें फोड़ी हैं, तेरी आँखें भी किसी दिन इसी तरह फूटेंगी। आप के इस शाप से मुझे अपने पाप का बोध हुआ और मैंने फैसला कर लिया कि मुझे जीवन में नेत्र-चिकित्सक ही बनना है।

मेरी आँखें तो आप के शाप के कारण कभी-न- कभी फूटेंगी ही, पर उससे पहले मैं बहुत-सी आँखों को रोशनी दे जाऊँगा। उन बहुत- सी आँखों में से दो आँखें आप की भी होंगी, दादी अम्मा’

डॉ. प्रभात की बातों में न जाने कैसा जादू था कि दादी की ही नहीं, हम सबकी आँखें भर आयी दादी तो इतनी भाव-विह्वल हो उठीं की उन्होंने डॉ. प्रभात को पास बुलाकर हृदय से लगा लिया | उनके सिर पर स्नेहपूर्वक हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा, ‘जीते रहो, मेरे लाल ! तुम्हारी आँखों की ज्योति हमेशा बनी रहे।’

इसके बाद दादी ने मुझसे कहा, ‘अरे बबुआ, तेरा बालसखा आया है, इसकी खातिरदारी नहीं करेगा? जा, इसके लिए, अच्छी-सी मिठाई लेकर आ और सुन, इसने मेरी आँखों के लिए जो दवाई लिखी थी न, वह भी खरीद लाना।’ shaap mukti story

लेखक: रमेश उपाध्याय

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Conclusion

आधुनिक हिन्दी कहानीकारों में रमेश उपाध्याय का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इनका जन्म 1 मार्च 1942 को एटा जिले के बधारी गाँव में हुआ था। इन्होंने पहले ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ तथा ‘नवनीत’ में उपसम्पादक का कार्य किया। इस समय ये व्यावसायिक अध्ययन महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य कर रहे हैं। ‘शेष इतिहास’ ‘नदी के साथ’, ‘बदलाव से पहले’ इनके प्रसिद्ध उपन्यास तथा ‘पेपरवेट’ नाटक विशेष उल्लेखनीय हैं।

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